डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी
नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेबसाइट KahaniStation पर और आज हम लाए हैं भारत के सबसे पहले उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की जीवनी ;
संक्षिप्त जीवन परिचय :
जन्म - 5 सितम्बर 1888 ,स्थान - तिरुतिन गांव ,पिता - सर्वपल्ली वीरास्वामी,माता - सीताम्मा,4 भाई और 1 बहन,व्यवसाय - शिक्षक ,भारत रत्न 1954 में,मृत्यु - 17 अप्रैल 1975 ,
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन :
इनके पिता सर्वपल्ली वीरास्वामी एक विद्वान ब्राह्मण थे और राजस्व विभाग में कार्यरत थे। इनकी माता का नाम सीताम्मा था जो कि एक गृहणी थी।
राधाकृष्णन जी के 4 भाई और 1 बहन थी।
इनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी , और सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक अच्छे छात्र थे इस कारण इनकी पढ़ाई का अधिकांश भाग छात्रवृति के सहारे था।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की शिक्षा :
अपनी शुरुआती पढ़ाई इन्होंने अपने ही गांव के स्कूल से की , सेकेंडरी शिक्षा के लिए इनके पिता ने क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरुपति में राधाकृष्णन जी का प्रवेश कराया।
1896 से 1900 तक चार वर्ष तिरुपति में रहने के बाद सर्वपल्ली राधाकृष्णन मेट्रिक की शिक्षा के लिए वेल्लूर गए ।
1902 में उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा पास की।
1904 में बारवीं में विशेष योग्यता के साथ परीक्षा उत्तीर्ण करने पर उन्हें छात्रवृति प्राप्त हुई।
उच्च शिक्षा के लिए सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने दर्शनशास्र को चुना , इन्होंने दर्शनशास्र से एम. ए. की डिग्री हासिल की।
वैवाहिक जीवन :
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का व्यावसायिक जीवन ;
1909 में मात्र 21 वर्ष की उम्र में इन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। वहां वे 7 वर्षों तक पढ़ाते रहे।
1918 में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्र के सहायक प्राध्यापक चुने गए ,बाद में वे महाविद्यालय के प्राध्यापक भी बने।
इस दौरान उन्होंने भारतीय दर्शनशास्र को विश्व के सामने रखने में अपनी महत्वूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई भाषणों में दर्शनशास्र के बारे में बताया साथ ही अपने लेखों के माध्यम से सभी को बहुत प्रभावित किया।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने हिन्दू धर्म के ग्रंथों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उस समय समाज में हिन्दू शास्त्रों को वह सम्मान नहीं दिया जा रहा था जिसके वे हकदार थे। अतः सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने इस क्षेत्र में भी कार्य करने का निर्णय लिया।
बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्र के अध्यापक बने।
भारत में आकर वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उपकुलपति भी रहे।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी असीम प्रतिभा के धनी थे, वे साधारण जीवन जीने में विश्वास रखते थे, उस समय ब्रिटिश सरकार भारतीयों को अधिक सम्मान नहीं देते थे लेकिन अंग्रेजी सरकार ने राधाकृष्णन जी को "सर" की उपाधि दी थी।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी शिक्षा को बहुत महत्व देते थे , उनका मानना था कि शिक्षा के अभाव में मानव कभी सभ्य नहीं हो सकता है और उनके लेखों में भी यह बात साफ तौर पर देखी जा सकती है।
1915 में गांधी जी के संपर्क में आने के बाद डॉ राधाकृष्णन ने उनके विचारों का सम्मान करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थन में अपने लेख प्रकाशित किए।
1918 के समय उनकी मुलाकात कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई ,उनकी बातों और विचारों से डॉ राधाकृष्णन इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने इसी वर्ष टैगोर जी के विचारों पर एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका शीर्षक था -" रविन्द्र नाथ टैगोर का दर्शन ।"
डॉ राधाकृष्णन स्टालिन से भी दो बार मिले। उनका और स्टालिन का संवाद भी बहुत रुचिकर है। जब राधाकृष्णन जी स्टालिन से विदा ले रहे थे तब स्टालिन की आंखों में नमी थी और उन्होंने डॉ राधाकृष्णन की लंबी उम्र की प्रार्थना भी की थी।
अपने जीवन के 40 अमूल्य वर्ष डॉ राधाकृष्णन ने शिक्षा को समर्पित किए , उन्होंने कई बड़े कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्र की शिक्षा दी , जिसमें मैसूर विश्वविद्यालय , आंध्र विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों का नाम शामिल है।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन बहुत अच्छे वक्ता भी थे जिस कारण इनके पढ़ाने के ढंग से विद्यार्थी भी बहुत अधिक प्रभावित होते थे , और विभिन्न मंचों पर दर्शनशास्र के विषय में चर्चा करने के कारण इन्हें पूरे देश में सम्मान दिया गया।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम भारत में तो विख्यात हो गया था लेकिन जब उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी ' को प्रकाशित किया तो उनकी ख्याति पूरे विश्व में फ़ैल गई, पश्चिमी देशों के महान दार्शनिकों ने जब इनकी यह पुस्तक पढ़ी तो वे भी इनके ज्ञान को देखकर प्रभावित हुए , इस पुस्तक में राधाकृष्णन जी ने भारतीय संस्कृति के विषय में बहुत गहन विवेचन प्रस्तुत किया था ।
मानव जीवन के मूल्यों को बताने वाली भारतीय संस्कृति का यह वर्णन इतने बेहतर ढंग से करने पर डॉ राधाकृष्णन जी को विदेशों में भी पहचान मिली।
राजनीतिक जीवन
ब्रिटिश शासन में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कई पत्रों को प्रकाशित किया जो कि स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करते थे।
आजादी के बाद वे संविधान निर्मात्री समिति के सदस्य भी रहे ।
1949 से 1952 तक सोवियत संघ में भारत देश का नेतृत्व करने का अवसर भी इन्हे प्राप्त हुआ।
1952 के वर्ष में डॉ राधाकृष्णन जी भारत के पहले उपराष्ट्रपति चुने गए।
1962 में डॉ राजेंद्र प्रसाद के बाद ये भारत के दूसरे राष्ट्रपति बने।
राष्ट्रपति के रूप में उनके सामने एक बहुत बड़ी चुनौती तब आई जब 1962 में भारत और चीन का युद्ध हुआ , इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा था।
डॉ राधाकृष्णन जी के राष्ट्रपति कार्यकाल में देश के 2 प्रधानमंत्रियों की मृत्यु हुई, पंडित नेहरू - 1964 में तथा लाल बहादुर शास्त्री जी - 1966 में , जिस कारण डॉ राधाकृष्णन का राष्ट्रपति कार्यकाल कठिन रहा।
26 जनवरी 1967 के दिन उन्होंने अपने संबोधन में यह घोषणा की कि अब वे देश के राष्ट्रपति नहीं बनेंगे।
1967 में उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन से भी इस्तीफा दे दिया।
17 अप्रैल 1975 के दिन 86 वर्ष की उम्र में इस महान शिक्षक , दार्शनिक और राजनेता ने दुनिया को अलविदा कह दिया। एक नर्सिंग होम में हृदय की गति रुकने के कारण डॉ राधाकृष्णन जी की मृत्यु हो गई।
1931 में ब्रिटिश सरकार ने राधाकृष्णन जी को सर की उपाधि प्रदान की।
1938 में ब्रिटिश अकादमी के सदस्य चुने गए।
1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया।
1961 में जर्मन बुक का ट्रेड शांति पुरस्कार उन्हें प्राप्त हुआ।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में बिताए , इन 40 वर्षों में उन्होंने भारत देश के दर्शन शास्त्र को दुनिया के सामने रखा ।
एक आदर्श शिक्षक को समाज में क्या भूमिका होती है , यह बात इनके चरित्र में साफ तौर पर देखी जा सकती थी।
अतः डॉ राधाकृष्णन जी के जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में हर वर्ष 5 सितंबर के दिन पूरे देश में मनाया जाता है।
इस दिन भारतीय सरकार द्वारा भी इनके नाम पर पुरूस्कार वितरण किया जाता है।
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